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कविता

अस्तित्व मेरा...

भारती गोरे


अंधा अँधेरा सरसर चीरती
बढ़ रही थी आगे आगे रेलगाड़ी
झाँक रही थी मैं
पिछड़ते खेत गुम होते खलिहान
घुप्प अँधेरा
देख रही थी मैं
एक घना अंधकार
जिसकी कल्पना में एक मीठा-सा डर
मेरा धरा सारा स्वाँग
लील जाए यह कालिमा
समा जाऊँ मैं इसमें
और बन जाऊँ खुद एक घनघोर अंधकार
जिसके
घनेरे कालेपन की आड़ में
उतार फेंकूँ मैं अपना उजलापन
जिसे ओढ़ लेती हूँ मैं हर पल...
दिन में... रात में...
देखूँ तो सही
इस उजाले नकाब के
भीतर की मैं
कैसी हूँ
पहचानूँ तो सही
अपनी असलियत मैं
जानूँ तो सही
हूँ कौन मैं
कर गुजरूँ कोई ऐसा काम
जो 'होने' का बोध करा दे मुझे
सारी सफेदपोशी की केंचुल उतार
फेंक दूँ मैं
तलाशूँ अपने आप को
तलाशूँ अपने अस्तित्व को
अपने उस अस्तित्व को
जो दीन दुनिया से क्या
खुद मुझ से भी अनजाना है


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